प्लेन क्रैश की खबर जब भी आती है, तो एक सवाल सबसे पहले उठता है – ब्लैक बॉक्स मिला या नहीं? क्योंकि यही एक चीज़ है जो ये बता सकती है कि प्लेन आखिर क्यों गिरा। लेकिन मजेदार बात ये है कि खुद ये ब्लैक बॉक्स भी कई बार एक मिस्ट्री बन जाता है।
ब्लैक बॉक्स नाम सुनते ही लगता है कि कोई काला, सीक्रेट डब्बा होगा। लेकिन हकीकत में ये एकदम चमकीले नारंगी रंग का बॉक्स होता है, ताकि हादसे के बाद मलबे में इसे आसानी से देखा जा सके। ये बॉक्स दो हिस्सों में बंटा होता है – एक होता है CVR (Cockpit Voice Recorder) और दूसरा FDR (Flight Data Recorder)। मतलब एक पायलट की आवाज़ और बातचीत रिकॉर्ड करता है, दूसरा पूरे फ्लाइट की तकनीकी जानकारी। यही वो डेटा होता है जो क्रैश की असली वजह तक पहुंचाता है।
लेकिन बात सिर्फ इतनी आसान नहीं है। ब्लैक बॉक्स को प्लेन के सबसे मजबूत हिस्से में रखा जाता है ताकि हादसे के बाद भी ये सलामत रहे। मगर इसे ढूंढना फिर भी आसान नहीं होता, खासकर तब जब क्रैश समुंदर या घने जंगल में हो।
इसमें GPS जैसी कोई ट्रैकिंग टेक्नोलॉजी नहीं होती। इसका कारण है कि GPS सिग्नल एयरप्लेन के बाकी सिस्टम्स के साथ interfere कर सकता है, जिससे उड़ान के दौरान गड़बड़ी हो सकती है। तो इसकी जगह ब्लैक बॉक्स एक हल्का सा पिंग साउंड छोड़ता है – एक ऐसा अल्ट्रासोनिक बीप जिसे सिर्फ तभी पकड़ा जा सकता है जब आप इसके बहुत नजदीक हों। यही वजह है कि कई बार हादसे के बाद महीनों तक ब्लैक बॉक्स नहीं मिलता।
अब सवाल उठता है – क्या इतनी एडवांस टेक्नोलॉजी के दौर में भी हम ब्लैक बॉक्स को और बेहतर नहीं बना सकते? दुनिया के कुछ हिस्सों में अब ‘क्लाउड डेटा ट्रांसमिशन’ की बात हो रही है, जिसमें फ्लाइट डेटा को real-time में satellite से भेजा जा सके। लेकिन इसमें cost और privacy की बड़ी चिंता होती है।
इसी बीच कई aviation experts मानते हैं कि ब्लैक बॉक्स को केवल डिवाइस ना बनाकर ‘सिस्टम’ बनाना चाहिए – मतलब कुछ ऐसा जो डेटा रिकॉर्ड तो करे ही, साथ में उसे auto-upload भी करे, ताकि कोई हादसा हो भी जाए तो जानकारी सिर्फ उसी डब्बे पर ना टिकी हो।
भारत में हाल ही में जो प्लेन क्रैश हुआ, उसमें भी यही सवाल उठ रहे हैं – ब्लैक बॉक्स कब मिलेगा, मिलेगा भी या नहीं? क्योंकि जब तक ब्लैक बॉक्स नहीं मिलता, कोई अधिकारी कुछ कह नहीं सकता। यही कारण है कि कई मामलों में families को महीनों इंतजार करना पड़ता है सच्चाई जानने के लिए।
आपने सोचा होगा कि ब्लैक बॉक्स crash-proof होता है – हां, होता है। इसे बनाने में heat resistance, water proofing और shock absorbing की हाई-टेक्नोलॉजी लगती है। लेकिन कुछ extreme situations ऐसी भी होती हैं जहां ये भी fail हो सकता है, खासकर deep sea या आग में बुरी तरह जलने की स्थिति में।
तो ये कहना गलत नहीं होगा कि ब्लैक बॉक्स, जो हादसे के बाद सबसे जरूरी चीज़ है, वही सबसे ज्यादा vulnerable भी है। अब वक्त आ गया है जब aviation industry को इस पर भी R&D करनी चाहिए – ताकि सिर्फ एक पिंग करने वाले बॉक्स पर ज़िंदगी की सबसे जरूरी सच्चाई टिकी ना हो।
आप क्या सोचते हैं?
क्या ब्लैक बॉक्स को अब GPS या real-time ट्रैकिंग जैसी टेक्नोलॉजी से अपग्रेड करना चाहिए?
या फिर ये सिस्टम जैसा है, वैसे ही ठीक है?
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✍️ लेखक:
यशवंत सिंह
और
निशु सिंह
हम दोनों LurnSkill ब्लॉग के लेखक और संस्थापक हैं। हमारा मकसद है कि टेक्नोलॉजी, जनरल नॉलेज और डिजिटल स्किल्स जैसी ज़रूरी जानकारी को आसान और देसी भाषा में हर उस इंसान तक पहुँचाया जाए जो कुछ नया सीखना चाहता है। हम चाहते हैं कि सीखना भारी न लगे — बल्कि मजेदार और जानकारी से भरपूर हो।